MAGROOR

मग़रूर (अक्टूबर ‘ २१)

अगर जान जाते कि, प्यार में दग़ा देने के लिए मजबूर हो तुम,
तो दिल कि बात न बताते, हो जाते थोड़े से मग़रूर हम।

बुरे तो हम भी नहीं थे सूरत के, ज़ुल्फ़ों में भी थे काफी पेचो ख़म,
कुसूर तो इन आँखों का था, जिनको भा गए बस तुम ही तुम ।

यूँ तो वक़्त हम पर भी मेहरबान था, और मिलते थे कई सनम,
दिल कम्बख्त धोखा दे गया, और इसमे घर कर गए तुम ।

ऐसा नहीं कि बिलकुल अनजान थे, दिल के हाथों मजबूर थे हम,
तुम्हारी हर बेवफाई पर नज़र थी, सब कुछ देख रहे थे हम ।

प्यार बेइंतहा था तुमसे, इसलिए आँखें मूँद सब सह गए हम,
यह कमज़ोरी नहीं विश्वास तह, जो अब भी करते हैं हम ।

शायद तुम यह समझ पाओ, ज़िंदा हैं क्यूंकि तुम पर मरते हैं हम,
तुम अपनी फितरत मत छोडो, जारी रखो अपने ज़ुल्मो सितम ।

काश यह फितरत हम समझ पाते, काश हो पाते मग़रूर हम ।
————————————– काश हो पाते मग़रूर हम ।

- शिवानी 'नरेंद्र' निर्मोही