Kya samjhein hum....

शादी———सपना ?———हकीकत?

सुबह का समय—–नींद अपने आप ही खुल गयी, घर में इतनी चहल पहल जो थी।
जहाँ भी नज़र जाए मेहमान ही मेहमान —–गुप् शप—–चाय के कप—-पकोड़ों
की थालियां—–मिठाई की टोकरियां—-लास, गोते, कालीरों की लड़ियाँ—–
इधर उधर बिखरी रंग बिरंगी पोशाकें और साड़ियां—-हंसी की फुलझड़ियाँ—-
छत से लटकती फूलों और रंग बिरंगी बल्बों की लड़ियाँ —–और गेट पर खड़ी
ढेरों गाड़ियां। ऐसा ही होता है शादी वाला घर —-कुछ ऐसी ही रौनक और नज़ारा
था मेरे घर का —–आज से बीस साल पहले—जब मेरी शादी का दिन था।
समय कैसे बीत गया—-पता ही नहीं चला, पर शायद यह खुशनुमा माहौल—–
यह बाजे गाजे—–यह रौनक —–शादी का पूरा सच नहीं है।
क्यूंकि यह शादी की फोटो में अब पहले जैसी मुस्कान और कशिश नज़र नहीं आती,
सगाई की अंगूठी भी ऊँगली में फसने लगी है, मंगलसूत्र के मोती भी एक दूसरे से दूर
भागते हैं—–और इन्हे ही क्यों दोष दूँ—-हम दोनों भी तो, जब काम हो एक दूसरे के
पास आते हैं—-एक दूसरे को “हैप्पी एनिवर्सरी” की जगह—-अब हैरान होकर ——
‘अरे एक साल और बीत गया’—-कहते है।
तो क्या एहि हर शादी का हश्र और हकीकत है —–एक ऐसी लक्ज़री गाड़ी, जिसे
आप हर हाल में पाना चाहते हैं—-जिसे पानी के लिए आप हर तरहां का समझौता
कर लेते हैं —-किसी भी हद तक झुकने को तैयार हो जाते हैं —–जब वह गाडी
मिल जाती है, तो उसे बहुत ही एहतियात से रखते हैं —–बहुत संभाल कर चलाते हैं,
सजाते हैं—-संवारते हैं—-हर नाज़ नखरा उठाते हैं—–उसे हर चीज़ से बचाते हैं।
—–पर जैसे ही वह गाड़ी कुछ पुरानी हो जाती है—-वह महज़ एक यातायात का
साधन बन जाती है—-उसे महबूरि में घसीटते हैं—-जिसमे पेट्रोल भी बस इसलिए
डलवाते हैं क्यूंकि उसके बिना गाड़ी चलेगी नहीं—-
शादी भी कुछ साल बाद ऐसी ही हो जाती है—-जिसे बस मजबूरी में निभाया जाता है।
उसमे सिर्फ इसलिए रहा जाता है—-क्यूंकि उसके बिना ज़िन्दगी की गाड़ी चलेगी नहीं।
और यह समझ नहीं आता—-क्या यही प्यार था —-? क्या इस का सपना देखा था—-?
क्या यही है शादी—–और शादी की हकीकत ——?

– शिवानी ‘नरेंद्र’ निर्मोही